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Pratik
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पहले से ही करों के बोझ से पिसी आम जनता पर मनमोहन सरकार द्वारा (पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि के कारण) पड़ी मार से उपजी कवि व्यथा का प्रतिफल यह कुण्डलिया छन्द :
महंगाई इतनी क्यों बढी,ये समझ न पावे कोय
बहुत अधिक गुस्सा आवे, मन का आपा खोय।
मन का आपा खोय,पर कर कोई कछहुं न पावे
ज़ोर-ज़ोर से हर कोई चीखे,चिल्लावे और गावे।
कहत प्रतीक यही,सबने लेख लिखे कविता गायी
कहत-सुनत जीवन बीता,पर कम न हुई महंगाई।
आजकल वामपन्थी मिसाइलें शेयर बाज़ार को ध्वस्त करने में व्यस्त हैं। हांलाकि वे बयान जिनसे शेयर बाज़ार औंधे मुंह गिर पड़ता है, काफी पुराने और सड़े गले हैं। लेकिन उनमें उतना ही दम है, जितना पुराने सड़े-गले टमाटरों में होता है। जिस तरह श्रोताओं व दर्शकों के हाथों में शोभायमान सड़े-गले टमाटरों के सामने मंच पर खड़े वक्ताओं और अभिनेताओं का मुंह सूख जाता है और मन में भय का अथाह सागर हिलोर मारने लगता है, ठीक यही हाल वामपन्थियों के सामने शेयर बाज़ार का है। अगर आप शहर के किसी अंग्रेज़ी स्कूल से पढ़े हुए हैं और जानना चाहते हैं कि गांव की किसी टाट-पट्टी वाली पाठशाला में मास्टर जी के सामने छात्र किस तरह थर थर कांपते हैं, तो आप इसका अनुभव वामपन्थियों के सामने शेयर बाज़ार की कल्पना कर सहज ही कर सकते हैं।
क्या आपने गॉडजिला फिल्म देखी है। हां, आप सब कम्प्यूटर वाले लोग हैं, तो अब फाइंड एंड रिप्लेस कमांड का प्रयोग करके गॉडजिला को कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत या सोमनाथ चटर्जी से रिप्लेस कर दीजिए और न्यूयॉर्क को दलाल स्ट्रीट से। अब कल्पना कीजिए उस दृश्य की जिसमें गॉडजिला (वामपन्थी) न्यूयॉर्क (दलाल स्ट्रीट) में तबाही मचाता है (संवेदी सूचकांक गिराता है), भगदड़ मच जाती है, माहौल में दहशत छा जाती है। क्या धांसू सीन है, वाकई रोमांचक है।
लेकिन सोचने वाली बात यह है कि वामपन्थियों की आर्थिक नीतियों की वजह से जो हाल अभी शेयर बाज़ार का हुआ है, कहीं वही हाल सारी अर्थव्यवस्था का न हो जाए।